AUM DARK HORSE AWARDED NOBEL IN LITERATURE By Chitranjan Sawant Tomas Transtromer, the 80 year old poet of Stockholm, Sweden...
Tuesday, July 17, 2012
NIRANTARTA OR CONTINUITY BY SUDHA SAWANT
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gaurav sawant gauravcsawant@yahoo.com
9:32 AM (12 hours ago)
ओ3म्
निरन्तरता
सुधा सावंत
जीवन निरंतर बाधा रहित चलता रहे ,यह सोचना अच्छा लगता है ।हमरी सांस निरंतर चलती रहे ,सब ओर कुशल मंगल रहे,यह सोचना अच्छा लगता है । नदी अपनी तेज गति से आगे बढती रहे यह देखना अच्छा लगता है ।हमारी सांसों मे निरंतरता जरूरी है,नदी की गति में निरंतरता जरूरी है ,हमारे कुछ सीखने पढने में अभ्यास की निरंतरता जरूरी है।हम निरंतर अभ्यास ना करें, हम कुछ सीख नहीं पाएंगे ,नदी की गति रुक जाए ,पानी सूख जाए तो नदी का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा .यह निरंतरता ही उनके अस्तित्व की पहचान है ।यह जीवात्मा भी इसी तरह एक शरीर छोड कर दूसरा शरीर धारण कर लेता है ,किन्तु आत्मा एक ही रहती है ऐसा हमारे आप्त पुरुष, ऋषि-मुनि हमें बताते रहे हैं, हमें इस बात पर विश्वास करना चाहिए। आप कहेंगे ,चलिए आपकी इस बात विश्वास कर लिया कि आत्मा शाश्वत है,पर इस के द्वारा आप समझाना क्या चाहते हैं सरल सी बात है,यदि आप आत्मा के शाश्वत रूप को मानते हैं तो यह भी मान लीजिए कि हम अपनी सोच से अपने कार्यों से जो कुछ भी सोचते - करते हैं ,उनके संस्कार भी आत्मा पर प़डते रहते हैं । मनोवैज्ञानिकों ने यह प्रयोगों द्वारा सिद्ध कर के भी दिखाया है ।उनका यह प्रयोग मेंडल्स थ्योरी के नाम से जाना जाता है। इसमें उन्होंने यह सिद्ध किया कि माता-पिता के अर्जित गुण उनके बच्चों में आजाते हैं।फिर घर का वातावरण भीउनको वैसा ही मिलता है तो वे गुण और भी अच्छी तरह से पनपते हैं ।इसीलिए अक्सर देखा गया हैकि संगीतकार,चित्रकार,वैज्ञानिक या खिलाडियों के बच्चों में सामान्यतया वे गुण आ ही जाते हैं जो उनके माता-पिता में होते हैं ।माता-पिता के अर्जित गुणों के संस्कार उनके जीन्स से बच्चों की जीन्स नें आ जाते हैं। अब सोचिए किहम जो संस्कार अपनी जीन्स पर डाल रहे हैं या दर्शन की भाषा में कहें कि जो संस्कार हम अपने सूक्ष्मशरीर पर डाल रहे हैं वे भी तो हमारी आत्मा की निरंतरता के कारण हमारे नए जन्म के साथ हमें मिल जाएंगे ।
श्रीमद् भगवद्गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण ने भ्रम में पडे अर्जुन को यही बात समझाई थी कि हम अपने इस जीवन में जो कुछ कर रहे हैं सीख रहे हैं वह पूरी तरह से नहीं कर पाए तो कोई बात नहीं।हमारे सूक्ष्मशरीर पर तो वे संस्कार बन ही जाते हैं ,इस शरीर के नष्ट होजाने पर भी आत्मा के साथवे जन्म के समय दूसरे शरीर में भी आ जाते हैं और तब जीवात्मा नए सिरे से अपने अधूरे कामों को पूरा करने के लिए कार्यरत होजाती है ।यह क्रम पूर्णताप्राप्ति तक चलता ही रहता है---
श्रीकृष्ण कहते हैं –तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्
यतते च ततो भूय संसिद्धौ कुरुनन्दन।।
अर्थात हे कुरुनन्दन ,वह पुरुष वहां पूर्वदेह में प्राप्त किएहुए ज्ञान से संपन्न होकर सफलता के लिए फिर से प्रयत्न करता है ।
आत्मा की निरंतरता तथा उस पर पडे संस्कारों के विषय में यह बात योगेश्वर श्रीकृष्ण जी ने कही है ,आप्तवचन है हमें इस पर विश्वास करना चाहिए।अब चलिए कुछ उदाहरण देखते हैं ---
आठवीं शताब्दी में हुए आद्यगुरु शंकराचार्य के लिए कहते हैं कि बचपन से उनमें कुछ अलौकिक शक्तियां थीं।स्वयं निर्धन थे। एक याचक को द्वार पर भिक्षा मांगते देखकर सोचा मेरे पास तो केवल आंवले हैं,वही दे देता हूं और वे आंवले ।आत्मज्ञान प्राप्ति की लगन इतनी थीकि नौ वर्ष की आयु में हीसंन्यास ले लिया था ।वेद आदि का अध्ययन किया ,भाष्य लिखे।आत्मज्ञान प्राप्त किया ।केवल तेईस वर्ष तक जीवित रहे किन्तु इस संसार को आत्मा की निरंतरता के बारे में बताने में सफल रहे।हम आज भी उन्हें आद्यगुरु शंकराचार्य के रूप में श्रद्धा से स्मरण करते हैं ।
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती से तो हम सभी परिचित हैं।बालक मूलशंकर केरूप में सच्चे शिव को जानने की इच्छा जाग्रत हुई । युवावस्था तक आते-आते संसार से विमुख हो संन्यास लेलिया।छत्तीस वर्ष की आयु में दंडी स्वामी विरजानन्द के शिष्य बने,अष्टाध्यायी व वेदों का ज्ञान प्राप्त किया और पौने तीन वर्षों में वेदों का ज्ञान प्राप्त करके ,गुरु विरजानन्द की आज्ञानुसार वेदो का प्रचार करने लगे। सारी मानवता को सत्य का प्रकाश देने लगे। उनकी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पढ़िये बात समझ आने लगेगी।
यह बात केवल अध्यात्म ज्ञान के लिए ही नही है। 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की बात आप सभी ने पढ़ी और सुनी होगी। बचपन से ही वीरता और स्वाभिमान के गुण कूट कूट कर भरे थे उनमें। बालिका होते हुए भी तीर चलाना, सैन्य घेरना, घुड़सवारी करना उनके प्रिय खेल थे। देश को आज़ाद कराने की लगन मन में भरी हुई थी। झांसी की रानी केवल 23 वर्ष तक इस संसार में रहीं परंतु अपनी वीरता और सैन्य कुशलता से विदेशियों तक को चमत्कृत कर के रख दिया था । स्वाभिमान की जीती जागती साकार प्रतिमा थी। निश्चय ही उनके पूर्व जन्म के संस्कार उनके पास थे जो इस जीवन को पूर्णता को प्राप्त हुए। आप अपने आस पास भी ऐसे अनेक बालक बालिकाओं को बड़े युवको महिलाओं को देखते होंगे और कहते होंगे कि बड़े संस्कारी थे। तो इन बातो पर विश्वास कीजिए और अपने इस जीवन को तथा आने वाले अनेक जीवनों को सुधारने, सफल बनाने की नीवं रखना आरंभ कीजिए। क्योंकि यह शाश्वत सत्य है कि हमारे सूक्षम शरीर पर हमारे विचारों के हमारे अर्जित ज्ञान के संस्कार पड़ते रहते हैं। यदी हम चाहें तो निरंतर ज्ञान प्राप्त कर के अच्छे कर्म करते हुए उन्नति के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। चरम लक्ष्य को पा सकते हैं।
सुधा सावंत
609, सेक्टर 29
नोएडा 201303
I have seen 78 spring seasons in this life. Aim at being a Centenarian and also remain in good health. Interact with YOUTH to help them lead a healthy and happy life.
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